“देवताओं की घाटी” कुल्लू हिमाचल प्रदेश के सबसे लुभावनी सुंदर भागों में से एक है। उत्तरी भारत का यह शांत स्थल दूर-दूर से पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए प्रसिद्ध है।
कुल्लू दशहरा पूरे भारत में प्रसिद्ध है। अन्य स्थानों की ही भाँति यहाँ भी दस दिन अथवा एक सप्ताह पर्व तैयारी आरंभ हो जाती है। पहाड़ी लोग अपने ग्रामीण देवता की धूम धाम से झांकियां निकाल कर पूजन करते हैं।
देवताओं की मूर्तियों को बहुत ही आकर्षक पालकी में सुंदर ढंग से सजाया जाता है। साथ ही वे अपने मुख्य देवता रघुनाथ जी की भी पूजा करते हैं।
कुल्लू नगर में देवता रघुनाथजी की वंदना से दशहरे के उत्सव का आरंभ करते हैं। दशमी के दिन इस उत्सव की शोभा निराली होती है। इसकी खासियत है कि जब पूरे देश में दशहरा खत्म हो जाता है तब यहां शुरू होता है।
देश के बाकी हिस्सों की तरह यहां दशहरा रावण, मेघनाथ और कुंभकर्ण के पुतलों का दहन करके नहीं मनाया जाता। सात दिनों तक चलने वाला यह उत्सव हिमाचल के लोगों की संस्कृति और धार्मिक आस्था का प्रतीक है।
उत्सव के दौरान भगवान रघुनाथ जी की रथयात्रा निकाली जाती है। यहां के लोगों का मानना है कि करीब 1000 देवी-देवता इस अवसर पर पृथ्वी पर आकर इसमें शामिल होते हैं।
इस त्यौहार के पीछे की रोचक कहानी
इस पौराणिक त्यौहार के पीछे एक रोचक घटना का वर्णन मिलता है। कुल्लू दशहरा की उत्पत्ति राजा जगत सिंह के शासन काल से मानी जाती है, जो उस समय कुल्लू के शासक थे। उन्होंने ने वर्ष 1637 से 1662 ईस्वी तक शासन किया।
उस समय कुल्लू रियासत की राजधानी नग्गर हुआ करती थी। कहा जाता है कि राजा जगत सिंह के शासनकाल में मणिकर्ण घाटी के गांव टिप्परी में एक गरीब ब्राह्मण दुर्गादत्त रहता था और किसी ने राजा को यह झूठी सूचना दी कि ब्राह्मण के पास एक पथ्था (डेढ़ किलो) सुच्चे मोती है जो राज महल में होने चाहिए।
राजा ने अपने लालच में दुर्गादत्त को अपने मोती सौंपने का आदेश दिया लेकिन दुर्गादत्त ने मना कर दिया। राजा के भय से दुर्गादत्त ने परिवार समेत आत्मदाह कर लिया। और राजा को श्राप दिया, “जब भी तुम कुछ खाना चाहोगे तो वह तुम्हें कीड़े के रूप में दिखाई देगा, और पानी खून के रूप में दिखाई देगा”।
यूँ मिली श्राप से मुक्ति
श्राप से ग्रसित राजा जगत सिंह को झीड़ी के एक पयोहारी बाबा किशन दास ने सलाह दी कि वह अयोध्या के त्रेतानाथ मंदिर से भगवान राम चंद्र, माता सीता और रामभक्त हनुमान की मूर्ति लाकर कुल्लू के मंदिर में स्थापित करके अपना राज-पाट भगवान रघुनाथ को सौंप दे तो उन्हें ब्रह्म हत्या के दोष से मुक्ति मिल जाएगी।
इसके बाद राजा जगत सिंह ने रघुनाथ जी की प्रतिमा लाने के लिए बाबा किशन दास के शिष्य दामोदर दास को अयोध्या भेजा। दामोदर दास वर्ष 1651 में श्री रघुनाथ जी और माता सीता की प्रतिमा लेकर गांव मकड़ाह पहुंचे।
माना जाता है कि यह मूर्तियां त्रेता युग में भगवान श्रीराम के अश्वमेघ यज्ञ के दौरान बनाई गई थीं। वर्ष 1653 में रघुनाथ जी की प्रतिमा को मणिकर्ण मंदिर में रखा गया और वर्ष 1660 में इसे पूरे विधि-विधान से कुल्लू के रघुनाथ मंदिर में स्थापित किया गया।
राजा ने अपना सारा राज-पाट भगवान रघुनाथ जी के नाम कर दिया तथा स्वयं उनके छड़ीबदार बने। कुल्लू के 365 देवी-देवताओं ने भी रघुनाथ जी को अपना ईष्ट मान लिया। इससे राजा को कुष्ट रोग से मुक्ति मिल गई।
श्राप मुक्त होने की खुशी में राजा ने सभी 365 देवी-देवताओं को निमंत्रण दिया और खुशी में उत्सव मनाया। जो बाद हर साल मनाने से यह एक परंपरा बन गई। श्री रघुनाथ जी के सम्मान में ही राजा जगत सिंह ने वर्ष 1660 में कुल्लू में दशहरे की परंपरा आरंभ की।
तभी से भगवान श्री रघुनाथ की प्रधानता में कुल्लू के हर-छोर से पधारे देवी-देवताओं का महा सम्मेलन यानि दशहरा मेले का आयोजन चला आ रहा है। यह दशहरा उत्सव धार्मिक, सांस्कृति और व्यापारिक रूप से विशेष महत्व रखता है।
1966 में दशहरा उत्सव को राज्य स्तरीय उत्सव का दर्जा दिया गया और 1970 को इस उत्सव को अंतरराष्ट्रीय स्तर का दर्जा देने की घोषणा तो हुई। लेकिन, मान्यता नहीं मिली। लेकिन वर्ष 2017 में इस ऐतिहासिक उत्सव को अंतरराष्ट्रीय उत्सव का दर्जा दिया गया।