इतिहास : भृगु ऋषि की तपोस्थली के नाम से जाने वाला शहर करसोग समुद्र तल से 1 हजार 404 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है. यह शहर अपने प्राकृतिक सौंदर्य के साथ -साथ सेब के बागान के लिए भी प्रसिद्ध है । करसोग घाटी में ममलेश्वर महादेव, कामाक्षा देवी,मूल महुनाग व शिकारी देवी के प्रसिद्ध मदिर स्थित हैं. इन सभी मंदिरों का इतिहास किसी चमत्कार से कम नहीं है. करसोग शहर मंडी शहर से 125 किलोमीटर दूर है जबकि शिमला से इसकी दूरी सिर्फ 100 किलोमीटर है।
आइए जानते हैं इन चमत्कारिक मंदिरों का इतिहास
कैसे पड़ा नाम ‘करसोग’
इस शहर का नाम करसोग कैसे पड़ा इसका संबंध महाभारत से है। उस युग में एक बकासुर नाम का राक्षस था। जिसने इस नगरी में आंतक मचा रखा था। उसके आंतक से बचने के लिए इस नगरी के लोगों ने मिलकर प्रार्थना की वे प्रतिदिन हर घर से एक आदमी को बकासुर के लिए आहार के रूप में भेजेगें.
नर भक्षी था बकासुर
बकासुर भी इस बात से मान गया इसलिए अब इस नगरी से हर दिन एक आदमी इस राक्षस का आहार बनता था और हर दिन इस नगरी में शोक पड़ा रहता था। इसी कारण इस नगरी का नाम करसोग पड़ा।
भीम ने किया था वध
इस राक्षस का वध अज्ञातवास के दौरान भीम ने किया। जिस स्थान में बकासुर का वध किया गया उस स्थान पर श्मशान घाट बनाया गया है और मुर्दे को जलाने से पहले बकासुर की समाधि पर चढ़ाया जाता है क्यूँकि मरते हुए बकासुर ने भीम से कहा था कि मैं राक्षस हूँ इसलिए मुझे आहार में मनुष्य ही चाहिए जब मैं जीवित था तो जिन्दा मनुष्यों को खाता था और अब मैं मर जाऊंगा तो मुर्दा आदमी का भोजन करूंगा।
करसोग नगरी में बहुत ही सुन्दर मंदिर हैं जिनकी छवि लोगों को अपनी ओर आकर्षित करती है। यहाँ प्रकृति का सुन्दर नजारा है और प्रत्येक मंदिर की अपनी अलग विशेषता है। जिस कारण श्रद्धालुओं के आकर्षण का केंद्र बने होते हैं।
1. मम्लेश्वर महादेव
यह मंदिर करसोग से एक किलोमीटर की दूरी पर ममेल गाँव के बीच स्थित है। इसकी विशेषता यह है कि यह पाडंवों द्वारा निर्मित है। इस जगह में पांडवों ने अपना अज्ञातवास का समय बिताया था।
गेहूं का दाना
दूसरी यह जगह पृथ्वी की नाभि है। इस मंदिर में गेंहूँ का एक दाना है जो सभी के आकर्षण का केंद्र बना हुआ है.कहते हैं यह गेहूं का दाना पांडव यहाँ रख गए थे.
भीम का ढोल
यहाँ महाभारत काल का भीम का एक ढोल है जो भेखल नामक लकड़ी से बना हुआ है. इस ढोल का आकार वर्तमान के ढोलों से काफी बड़ा है। इस मंदिर में सोने का कुप्पू भी है।
इस मंदिर में महाकाल (मृत्यु के देवता ) की स्थापना की गई है जो शिव पार्वती की मूर्ति के पीछे स्थापित है जिसे आज तक किसी देखा है। पुजारी उसकी पूजा पीठ के पीछे से करता है।
चौबीस घंटे जलता रहता है धूना
ममलेश्वर मंदिर में कई हजार वर्षों से धूना लगातार चौबीसों घण्टे जला रहता है। यह अपने आप में एक चमत्कारिक रहस्य है जिसे कोई भी आज तक नहीं जान पाया है.
2. माँ कामाक्षा मंदिर
ममलेश्वर से थोड़ा दूर माँ कामाक्षा का मंदिर है जो वास्तुकला से निर्मित है। यह मंदिर भेंसे की बलि के लिए प्रसिद्ध है। प्रत्येक वर्ष नवरात्रों के आठवे दिन यहां पर भैंसे की बलि दी जाती है। यह बलि दशहरे से एक दिन पहले दी जाती है। एक बार यहाँ भैंसे की बलि पर रोक लगा दी गई थी तब इस इलाके में महामारी फैल गई थी।
भैंसे की चढ़ाई जाती है बलि
फिर सभी गाँव वाले माता के पास आये तो माता ने खा आपने हमारी प्रथा को भंग किया है इसकी सजा यही है। तब सभी गाँव वालों से माता को खुश करने के लिए साल के बीच में ही भैंसे की बलि चढ़ाई थी और इस महामारी से मुक्ति पाई। आज भी यह प्रथा ज़ारी है.
3. मूल महुनाग (राजा कर्ण के नाम से जाना जाने वाला मंदिर )
यह मंदिर करसोग से 15 किलोमीटर की दूरी पर देवदारों के पेड़ों में स्थित है। यह मंदिर महाभारत के कर्ण के नाम से भी जाना जाता है। इस मंदिर में सोना नहीं चढ़ाया जाता है। क्यूँकि दानवीर कर्ण सोने का दान करता था। इस मंदिर में केवल चाँदी ही चढ़ाई जाती है।
नागदेवता का मंदिर
यह मंदिर मूलतः नागदेवता है। इस की विशेषता यह है कि यदि किसी व्यक्ति को सांप काट ले तो उसे उस मंदिर में तीन दिन तक भूखे पेट रखा जाता है। उसे केवल कच्चा दूध पिलाया जाता है। बिना शक के तो वह बिलकुल ठीक हो जाता है। इस मंदिर में दिया चौबीसों घंटे जला रहता है।
4. शिकारी माता मंदिर
शिकारी माँ का यह मंदिर सबसे ऊँची छोटी पर स्थित है यहाँ पर प्रकृति का सुन्दर व् मोहक नजारा है जिसे देखने के लिए श्रद्धालु दूर-दूर से मंदिर तक केवल पैदल चल कर ही पहुंच जा सकता था लेकिन अब इसे सड़क से जोड़ लिया है।
अब यहाँ पर गाड़ियों की सहायता से पहुंचा जा सकता है। ये चोटियां अधिक समय तक बर्फ से ढकी रहती है। इसलिए यहां पर केवल गर्मियों में ही जाया जाता है। माता शिकारी सबकी मनोकामना पूर्ण करती है। इसलिए लोग मन्नत मांगने भी यहाँ आते है।