5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जा रहा है लेकिन आज अपनी सुविधा और जीवन को आसान बनाने के चक्कर में हमने ऐसे आविष्कार किए हैं जिन्होंने मानवता के अस्तित्व पर ही संकट खड़ा कर दिया है।
प्लास्टिक इसका सबसे घातक उदाहरण है-तात्कालिक लाभ देने वाला, लेकिन पीढ़ियों तक जहरीला प्रभाव छोडऩे वाला। पर्यावरण दिवस 2025 की थीम प्लास्टिक प्रदूषण को हराओ हमें एक स्पष्ट संदेश देती है: यदि अब भी हमने चेतना नहीं दिखाई, तो स्वच्छ हवा, जल और मिट्टी सिर्फ किताबों और कल्पनाओं में रह जाएगें।
हिमाचल जैसे पर्यावरणीय दृष्टि से संवेदनशील राज्य में यह चेतावनी और भी प्रासंगिक है, जहां प्लास्टिक प्रदूषण प्राकृतिक सौंदर्य, जैव विविधता और परंपरागत जीवनशैली को तेजी से नुकसान पहुंचा रहा है।
मंडी कालेज से वनस्पति विज्ञान विभागाध्यक्ष डा. तारा सेन ने बताया कि हर वर्ष दुनिया में लगभग 40 करोड़ टन प्लास्टिक उत्पादित होता है, जिसका बड़ा हिस्सा सिंगल यूज़ (एक बार इस्तेमाल होने वाला) होता है, परिणामस्वरूप बहुत कम ही पुन:चक्रित होता है।
जहां पहले सामाजिक आयोजनों में पत्तलों, मिट्टी के बर्तनों, बांस की टोकरियों और घड़े का उपयोग आम था, वहां अब प्लास्टिक ने जगह बना ली है।
यह केवल पर्यावरण संकट नहीं, बल्कि हमारी परंपरा और स्वास्थ्य पर सीधा प्रहार है। गर्म भोजन को जब प्लास्टिक में परोसा जाता है, तो उससे निकलने वाले रसायन कैंसर जैसी गंभीर बीमारियों का कारण बन सकते हैं।
वहीं पर्यटक जब अपने पीछे प्लास्टिक कचरा छोड़ जाते हैं, तो वह सदियों तक मिट्टी और जल स्रोतों को प्रदूषित करता रहता है।
नीयत, नीति और जीवनशैली में बदलाव जरूरी
सिर्फ नीति बनाने से नहीं, बल्कि नीयत और जीवनशैली में बदलाव लाने से ही स्थायी परिवर्तन संभव है। यदि हम हिमाचल को प्लास्टिक मुक्त और पर्यावरणीय नेतृत्वकर्ता राज्य बनाना चाहते हैं, तो हमें अपनी परंपराओं की ओर लौटना होगा, अपनी जड़ों से जुडऩा होगा।
इस पर्यावरण दिवस, केवल पौधे ही न लगाएं,बल्कि अपने सोचने के तरीके में भी हरियाली लाइए। पुरानी समझ को नया जीवन दीजिए तभी हम प्रकृति के साथ संतुलन में जी सकेंगे।
समाधान हमारी परंपरा में ही छिपा है
हिमाचल के लोग सदियों से प्रकृति के साथ सहजीवन करते आए हैं। बांस की टोकरियां या किरडे में भार उठाना कपड़े के झोले, पत्तल-दोना, खजरे की चटाइयां, मक्की और भूसे से बने घरेलू सामान-ये न केवल पर्यावरण के अनुकूल विकल्प हैं, बल्कि स्थानीय कारीगरों के लिए आजीविका के साधन भी बन सकते हैं।
क्या किया जा सकता है
शिक्षण संस्थानों को ‘नो प्लास्टिक ज़ोन’ के रूप में विकसित किया जाए। युवाओं और स्वयं सहायता समूहों को अपसाइकलिंग और पारंपरिक, इको-फ्रेंडली उत्पाद निर्माण में प्रशिक्षित किया जाए।
पर्यटन स्थलों पर प्लास्टिक पर प्रतिबंध को सख्ती से लागू किया जाए और स्थानीय उत्पादों को प्राथमिकता दी जाए। सरकार ने सिंगल यूज़ प्लास्टिक और थर्मोकोल पर प्रतिबंध,स्कूलों में प्लास्टिक बाय-बैक योजना और सड़क निर्माण में रिसाइकल्ड प्लास्टिक का उपयोग जैसे कई महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं।
इसके अतिरिक्त पंचायत स्तर पर कचरा प्रबंधन और ईपीआर जैसे मॉडल भी अपनाए जा रहे हैं। इन योजनाओं को जमीन पर उतारा जाए।