जब हम देश के बहुत सारे राज्यों जैसे पंजाब, तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, केरल, पश्चिम बंगाल आदि को उनकी स्थानीय भाषा और लिपि में संवाद करते देखते हैं तो मन में ये प्रश्न आता है कि क्या हिमाचल प्रदेश की भी कोई लिपि है जिसमें हम अपनी भाषा को लिपिबद्ध कर सकते हैं या कभी करते होंगे? हिमाचल प्रदेश के अधिकतर लोग ये नहीं जानते होंगे की हमारी पहाड़ी भाषा की कोई लिपि भी है। जी हाँ, यह लिपि है टांकरी।
टांकरी लिपि, पहाड़ी भाषा समेत उत्तर भारत की कई अन्य भाषाओँ को लिखने के लिए प्रयोग की जाने वाली लिपि है। पुराने समय में कुल्लू से लेकर रावलपिंडी तक पढने लिखने का हर तरह का काम टांकरी लिपि में ही किया जाता था। आज भी पुराने राजस्व रिकॉर्ड, पुराने मंदिरों की घंटियों या किसी पुराने बर्तन में टांकरी में लिखे शब्द देखे जा सकते हैं।
टांकरी लिपि ब्राह्मी परिवार की लिपियों का हिस्सा है जोकि कश्मीरी में प्रयोग होने वाली शारदा लिपि से निकली है। जम्मू कश्मीर की डोगरी, हिमाचल प्रदेश की चम्बियाली, कुल्लुवी और उत्तराखंड की गढ़वाली समेत कई भाषाएं टांकरी में लिखी जाती थी। हिमाचल प्रदेश के काँगड़ा, ऊना, मंडी, बिलासपुर, हमीरपुर में व्यापारिक व राजस्व रिकॉर्ड और संचार इत्यादि के लिए भी टांकरी का ही प्रयोग होता था।
लेकिन पिछले कुछ समय में टांकरी लिपि लगभग विलुप्त हो चुकी है। हिंदी और अंग्रेजी के उत्थान के साथ टांकरी ने अपना पतन देखा। जाहिर बात है कि हम पहाड़ों की अपनी समृद्ध कला, संस्कृति और इतिहास को सहेजने में पूरी तरह से विफल रहे हैं। हमारे पडोसी राज्य पंजाब ने अपनी भाषा और लिपि को सहेज कर आगे बढ़ाया लेकिन हिमाचली लोग अपनी भाषा, लिपि और संस्कृति को लेकर शर्मिंदगी और हीनभावना से ग्रसित रहे और बाहरी क्षेत्रों और देशों के रहन-सहन और भाषा को अपनाने में अपनी शान समझते रहे।
वर्तमान में बमुश्किल चंद लोग होंगे जो टांकरी को लिख पढ़ सकते हैं। ऐसे ही एक व्यक्ति हैं काँगड़ा जिला के रैत गावं में जन्मे श्री हरीकृष्ण मुरारी। श्री हरीकृष्ण मुरारी को हिम साहित्य परिषद मंडी की और से पहाड़ी साहित्य सम्मान से पुरूस्कृत किया गया है। इसके साथ ही जैमनी अकादमी ने इन्हें आचार्य की मानिंद उपाधि से सम्मानित किया है। हिमाचल से सम्बन्ध रखने वाली ‘सांभ’ नामक संस्था ने टांकरी के श्री हरिकृष्ण मुरारी जी के साथ मिल कर टांकरी को पुनर्जीवित करने की ओर कदम उठाया है।
श्री हरीकृष्ण मुरारी टांकरी के सरंक्षण की आवश्कयता पर जोर देते हैं
‘सांभ’ संस्था ने लगभग 2 वर्षों के अनुसन्धान के बाद विभिन संग्रहालयों, खाताबहियों, शिलालेखों, राजस्व रिकॉर्ड से हासिल किये पत्रों की मदद से टांकरी का फॉन्ट तैयार करने में सफलता हासिल की है। इसके साथ ही ‘सांभ’ श्री हरीकृष्ण मुरारी की सहायता से सेमिनार और वर्कशॉप का आयोजन करके टांकरी का प्रचार-प्रसार करके इसे बचाने के लिए कोशिश कर रही है।
कुल्लू के खूबराम कराड़सू ने लिपि को सिखाने के लिए दशकों पहले नग्गर में एक स्कूल खोला था लेकिन वयोवृद्ध हो जाने के चलते अब यह करना उनके लिए संभव नहीं रह गया है। उन्होंने घाटी में पाए जानेे वाले टांकरी लिखित कई हस्तलिखित मनु-स्मृतियों का अनुवाद कर दिया है लेकिन अभी कई ऐसी पुस्तकें प्राप्त हो रही हैं जिनका अनुवाद होना बाकी है। टांकरी के विद्वान खूबराम कराड़सू का कहना है कि इसे सहेजने के लिए सरकार और समाज को विशेष प्रयास करने होंगे।
हिमाचल प्रदेश सरकार की ओर से हर जिले में भाषा विभाग बने हुए हैं लेकिन फिलहाल हिमाचल प्रदेश सरकार के पास टांकरी के सरंक्षण के लिए कोई योजना नहीं है।
(सांभ संस्था की वैबसाईट, MyStateInfo और यूट्यूब वीडियो से मिले इनपुट्स पर आधारित)