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2 से 8 अक्तूबर तक धूमधाम से मनाया जाएगा अन्तर्राष्ट्रीय कुल्लू दशहरा

आप सभी को विजयादशमी पर्व की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं। भारत के हर कोने में दशहरा विजय का प्रतीक माना जाता है। कहीं रावण दहन होता है, तो कहीं रामलीला का मंचन, लेकिन हिमाचल प्रदेश की कुल्लू घाटी में दशहरा का रंग ही कुछ अलग है।

विश्व प्रसिद्ध कुल्लू दशहरे का हो रहा आगाज़

देवताओं का होता है भव्य मिलन

यहां यह पर्व रावण दहन से नहीं, बल्कि देवताओं के भव्य मिलन से पहचाना जाता है। यही कारण है कि कुल्लू दशहरा न केवल भारत में, बल्कि पूरी दुनिया में अपनी अनोखी परंपरा और आध्यात्मिकता के लिए प्रसिद्ध है।

वाद्य यंत्रों से गूँज उठती है घाटी

इस बार अंतरराष्ट्रीय कुल्लू दशहरा 2 अक्तूबर से 8 अक्तूबर तक धूमधाम से मनाया जाएगा। इस पूरे सप्ताह घाटी में लोक नृत्य, वाद्ययंत्रों की गूंज और हजारों श्रद्धालुओं की भीड़ एक अलौकिक दृश्य रच देती है।

ऐसे हुई कुल्लू दशहरे की शुरुआत

इस अनोखे त्योहार की शुरुआत 17वीं शताब्दी में कुल्लू के राजा जगत सिंह ने की थी। एक पौराणिक कथा के अनुसार, लालच और गलत निर्णय के कारण राजा पर एक ब्राह्मण परिवार का शाप लग गया।

इस श्राप से राजा को बेचैनी रहने लगी और उनका स्वास्थ्य बिगड़ने लगा। जब किसी भी उपाय से लाभ नहीं हुआ, तो एक साधु ने उन्हें भगवान राम (रघुनाथ जी) का आशीर्वाद लेने की सलाह दी।

भगवान रघुनाथ की मूर्ति की हुई स्थापना

राजा ने अपनी गलती के पश्चाताप के लिए भगवान रघुनाथ की मूर्ति स्थापित की और पूरे कुल्लू घाटी के देवताओं को निमंत्रण भेजा। तभी से यह परंपरा शुरू हुई और आज 375 साल से ज्यादा बीत जाने के बाद भी हर साल विजयदशमी के दिन से शुरू होने वाला यह 7 दिवसीय उत्सव धूमधाम से मनाया जाता है।

कुल्लू दशहरे में क्या है ख़ास

कुल्लू में दशहरा विजयादशमी से शुरू होता है और पूरे सात दिन तक चलता है। इस दौरान कुल्लू घाटी के दूर-दराज गांवों से सजी-धजी पालकियों में देवताओं को लेकर लोग ढालपुर मैदान तक आते हैं।

रघुनाथ की रथयात्रा

ढोल-नगाड़ों की थाप, लोकनृत्य, और पारंपरिक वाद्ययंत्रों की धुन से पूरा वातावरण गूंज उठता है। अंतिम दिन भगवान रघुनाथ की रथयात्रा ढालपुर मैदान तक पहुंचती है, जिसे देखने के लिए हजारों श्रद्धालु उमड़ पड़ते हैं। यह दृश्य मानो देवताओं और इंसानों का अद्भुत संगम प्रतीत होता है।

संस्कृति की मिलती है झलक

अन्तर्राष्ट्रीय कुल्लू दशहरा सिर्फ एक धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि संस्कृति और लोकजीवन को करीब से देखने का मौका है। यहां हिमाचली नृत्य, लोकगीत, और पीढ़ियों से चली आ रही परम्पराएं एक साथ देखने को मिलती हैं।

समय रहते कर लें बुकिंग

ध्यान रहे, इस दौरान कुल्लू और आसपास के सभी होटल और होमस्टे लगभग भर जाते हैं। इसलिए अगर आप इस साल यहां आने की योजना बना रहे हैं, तो अपनी बुकिंग समय रहते कर लें।

कई गांवों में तो स्थानीय परिवार मेहमानों को अपने घरों में ठहराते हैं, जहां असली हिमाचली मेहमाननवाजी का अनुभव मिलता है।

कुल्लू के आस-पास घूमने लायक स्थान

कुल्लू दशहरा देखने के साथ-साथ आसपास की वादियों का भी आनंद लिया जा सकता है।

चंडीगढ़ या मनाली से कुल्लू तक का सफर देवदार के जंगलों और ब्यास नदी के किनारे से गुजरता है, जो यात्रा को और भी यादगार बना देता है।

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